कोई दोस्त है या रक़ीब है, ये रिश्ता भी कितना अजीब है !



कोई दोस्त है या रक़ीब है
ये रिश्ता भी कितना अजीब है

क़ातिल ही निकला मुंसिब मेरा
ये इन्साफ़ भी कितना अजीब है

उसकी सूरत तक देखी ना गयी
ये कौन है जो इतना क़रीब है

उदासियों के साए में लिपटा हूँ
अब तो ये ही मेरा नसीब हैं

-सलीम ख़ान
# 9838659380 

4 टिप्पणियाँ:

kshama ने कहा…

उसकी सूरत तक देखी ना गयी
ये कौन है जो इतना क़रीब है

Wah! Kya baat hai!

समयचक्र ने कहा…

bahut sundar saleem ji...

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

सुन्दर प्रयास।

vandana gupta ने कहा…

वाह …………बहुत सुन्दर कहा।

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