तिजारत-ए-इश्क़ का मसअला उनका यूँ रहा, अपने जिस्म के सौदे का भी मुनीम रखते हैं.



लोग दीवारों की बातों पर यक़ीन रखते हैं
हम तो दिल की बातों पर यक़ीन रखते हैं

लोग रहते हैं यहाँ आशियाँ बना कर के और 
हम सर पे आसमान पैरों पे ज़मीन रखते हैं

तिजारत-ए-इश्क़ का मसअला उनका यूँ रहा
अपने जिस्म के सौदे का भी मुनीम रखते हैं

इलाज-ए-दर्द-ए-दिल का आलम न पूछो
दिल में ही अब हम इसका हक़ीम रखते हैं

सुकूँ-पसंदगी का जूनून ऐसे वाबस्ता है
लो हम अपना नाम ही 'सलीम'* रखते हैं


*सलीम = शान्तिप्रिय

4 टिप्पणियाँ:

bahoot hi gahre ehsas......

wonderful creation

shabdo aur bhavo ka atulniy misharan ****

DR. ANWER JAMAL ने कहा…

सलीम साहब ! आपसे सहमति जताते हुए कहना चाहूँगा कि पीड़ा में भी सुख के मजे लूटे जा सकते हैं बशर्ते कि दिल में ईमान हो और अपनी ज़िम्मेदारियों का अहसास हो। माँ के सुख का तो जनम ही जनम देने की पीड़ा से होता है । जब तक सिस्टम सुधरे या रिश्वत के रेट तय हों तब तक आप लोग देखिए मेरी एक रचना -

ज्ञानमधुशाला
कैसे कोई समझाएगा पीड़ा का सुख होता क्या
गर सुख होता पीड़ा में तो खुद वो रोता क्या

इजाज़त हो तेरी तो हम कर सकते हैं बयाँ
दुख की हक़ीक़त भी और सुख होता क्या

ख़ारिज में हवादिस हैं दाख़िल में अहसास फ़क़त
वर्ना दुख होता क्या है और सुख होता क्या

सोच के पैमाने बदल मय बदल मयख़ाना बदल
ज्ञानमधु पी के देख कि सच्चा सुख होता क्या

भुला दे जो ख़ुदी को हुक्म की ख़ातिर
क्या परवाह उसे दर्द की दुख होता क्या

आशिक़ झेलता है दुख वस्ल के शौक़ में
बाद वस्ल के याद किसे कि दुख होता क्या

पीड़ा सहकर बच्चे को जनम देती है माँ
माँ से पूछो पीड़ा का सुख होता क्या

"""""""""
ख़ारिज - बाहर, हवादिस - हादसे, दाख़िल में - अंदर
हुक्म - ईशवाणी, ख़ुदी - ख़ुद का वुजूद, वस्ल- मिलन

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