ऐसा हरगिज़ न होता जो जीने के उसूल होते, एक हाथ से देते तो दुसरे से ज़रूर वसूल होते

लफ़्ज़ों की बौछारों से आँखें भीगने लगती हैं
बिन मौसम गालों को आँखें सींचने लगती हैं
उनकी बात सुनते ही दिल तार-तार होता है
कैसे रोकूँ इसको मैं दिल ज़ार-ज़ार रोता है
जिनकी उम्मीदों पर है ज़िन्दगी भर का सफ़र
क्यूँ वही छोड़ कर जा रहा है बदल कर डगर
इश्क़ का सबक़ भी तो मुझे उसी ने सिखाया
उम्र जिसके नाम लिख दी फ़िर उसी ने रुलाया
ऐसा हरगिज़ न होता जो जीने के उसूल होते
एक हाथ से देते तो दुसरे से ज़रूर वसूल होते
इन्सान को पता है जब अन्जाम आखिरी अपना
क्यूँ वो अपने हांथो बर्बाद कर रहा है मेरा सपना
ख़ता भी कुछ बता देता तो तसल्ली होती मुझे
कम से कम तवज्जोह से तसल्ली होती मुझे

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