ये कैसा हादसा हमें पेश आया हैं
सिर पे सलीब रोज़ हमने उठाया है
जब चिराग़-ओ-शम्स मयस्सर न हुआ
अपने दिल को रौशनी के लिए जलाया हैं
आशियाना मुझे एक मयस्सर न हो सका
ऐ खुदा तुने ये जहाँ किस तरह बनाया है
मैं क्या करूँगा ज़माने की ख्वाहिशें
जबसे तुने मुझको रोना सिखाया है
तेरे ही बदौलत सही मुझे ये नसीब है
सरे-ज़माना मैंने अब सर कटाया है
किस्मत की दास्ताँ कुछ इस तरह हुई
ग़म-ख्वार ने ही 'सलीम' हर ग़म बढाया है
4 टिप्पणियाँ:
किस्मत की दास्ताँ कुछ इस तरह हुई
ग़म-ख्वार ने ही 'सलीम' हर ग़म बढाया है
Nihayat khoobsoorat!
Nice post.
जब चिराग़-ओ-शम्स मयस्सर न हुआ
अपने दिल को रौशनी के लिए जलाया हैं
kubsurat ahsas, badhai
जब चिराग़-ओ-शम्स मयस्सर न हुआ
अपने दिल को रौशनी के लिए जलाया हैं...
Beautiful couplets .
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