दुश्मन को भी अपना दोस्त बनाया है मैंने


दुश्मन को भी अपना दोस्त बनाया है मैंने
अपने हांथों आशियाँ खुद ढहाया है मैंने

नज़रों में अब धुआँ-धुआँ सा रहता है
जब से अपना घर खुद जलाया है मैंने

ग़ैरों की बिसात ही क्या थी मेरे आगे
अपने आप को ही खुद सताया है मैंने

दुनियाँ वालों से तवक्को रखता कैसे
मसीहा हूँ मैं, उनसे खुद बताया है मैंने

जफा जो मिली सबसे तो गिला कैसा
रक़ीब को भी खुद गले से लगया है मैंने

वक़्त को दोष क्या देना अब 'सलीम'
अपने हांथो इसे बुरा खुद बनाया है मैंने

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क्यूँ अब मर्ज़ी, दूसरों के आगे बेजान है मेरी

निदा की सरगोशी और रुख़ से पहचान है मेरी
क्यूँ अब मर्ज़ी, दूसरों के आगे बेजान है मेरी

सब कुछ है अपना मगर अब लगता है 
शख्सियत क्यूँ सबसे अनजान है मेरी

वक़्त जो गुज़र गया उसे याद करना क्या
क्यूँ यादों में अटकी अब भी जान है मेरी

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बिछड़ के भी उलझा रहता हूँ यादों में तुम्हारी, तुम भी दिल के तारों में उलझना न छोड़ देना !



मालूम है दूर हो, तसव्वुर करना न छोड़ देना
ख्वाबों में, मुझे बाँहों में जकड़ना न छोड़ देना

गुलिस्ताँ से आ रही है हसीं खुशबुएँ तुम्हारी
आने वाली इस सबा का रुख न मोड़ देना

पहाड़ों की सरगोशी में मौजूदगी है तुम्हारी
पत्थर से अपने दिल का रिश्ता न तोड़ देना

जिधर भी जाऊं बस नज़र में तुम्हारा है चेहरा
मेरे इस गौर-ओ-फ़िक्र का रस्ता न मोड़ देना

बिछड़ के भी उलझा रहता हूँ यादों में तुम्हारी
तुम भी दिल के तारों में उलझना न छोड़ देना

एक-एक पल सदी सा लगने लगा है अब
इन्तिज़ार के मिठास की शिद्दत न छोड़ देना
  ~ ~ ~
चली तो गयी हो सरहद-ए-सदा से दूर लेकिन
आने से पहले दुनियाँ की रस्मों को तोड़ देना

13 टिप्पणियाँ:

ऐसा करो कि अब मुझे एक और भगवान् दो !

परस्तिश की धुन कुछ इस तरह होने लगी है
ऐसा करो कि अब मुझे एक और भगवान् दो

मोहब्बत के बंधन से अब उकता चुका हूँ मैं
इन बंदिशों अब मुझे थोडा सा आराम दो

किराये की ज़िन्दगी है,किश्तों में जी रहा हूँ
जी लूं अपने लिए अब मुझे ये एहसान दो

ग़म की स्याह साजिश में गिरफ़्तार हो चुका हूँ
ऐसा करो कि अब मुझे थोड़ी सी मुस्कान दो

बादल के बनते-बिगड़ते चेहरे सी ज़िन्दगी मेरी
हो जिसमें मेरा अक्स अब मुझे ऐसी पहचान दो

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कभी हँसता हूँ तो कभी रोता हूँ यूँ ही, अजीब ग़फलत में रहता है दिल मेरा !


अल्लाह ही जाने अब क्या होगा मेरा
डरा-सा सहमा-सा रहता है दिल मेरा

कभी हँसता हूँ तो कभी रोता हूँ यूँ ही
अजीब ग़फलत में रहता है दिल मेरा

क़िस्मत का निज़ाम कुछ तरह वाबस्ता है
क़रीब आते ही खो जाता है साहिल मेरा

करने जाता हूँ जब कुछ भी अच्छा
जाने क्यूँ बुरा हो जाता है फ़िर मेरा

निकलता हूँ जाने के लिए जब महलों में 'सलीम'
हो जाता है क्यूँ जल्लाद के क़दमों में सिर मेरा

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अब तुम मेरे चैन में नहीं मेरी आहों में हो, मुझे मालूम है कि तुम ग़ैर की बाँहों में हो !


अब तुम मेरे चैन में नहीं मेरी आहों में हो
मुझे मालूम है कि तुम ग़ैर की बाँहों में हो

जितना हो सके सितम तू मुझपे किये जा
बरबादे-इश्क़ की दहशत मेरे ख्वाबों में हो

पैरों तले ज़मीन और सिर पे रहा न आसमाँ
भूलूँ भी कैसे तुम मेरी हसरतों-सदाओं में हो 

दुआ करता हूँ फ़िर भी हमेशा खुश रहे तू
मैं तेरी जफ़ाओं में, तुम मेरी वफ़ाओं में हो

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तुम चली गयीं तो जैसे रौशनी चली गयी, ज़िन्दा होते हुए भी जैसे ज़िन्दगी चली गयी !


तुम चली गयीं तो जैसे रौशनी चली गयी
ज़िन्दा होते हुए भी जैसे ज़िन्दगी चली गयी

मैं उदास हूँ यहाँ और ग़मज़दा हो तुम वहाँ
ग़मों की तल्खियों में जैसे हर ख़ुशी चली गयी

महफ़िल भी है जवाँ और जाम भी छलक रहे
प्यास अब रही नहीं जैसे तिशनगी चली गयी

दुश्मनान-ए-इश्क़ भी खुश हैं मुझको देखकर
वो समझते है मुझमें अब दीवानगी चली गयी

तुम जो थी मेरे क़रीब तो क्या न था यहाँ 'सलीम'
इश्क़ की गलियों से अब जैसे आवारगी चली गयी

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शाख़-ए-आशियाँ छूट गया, एक 'परिंदा' टूट गया !


शाख़-ए-आशियाँ छूट गया, एक 'परिंदा' टूट गया
अपना कहते-कहते क्यूँ, बीच सफ़र में लूट गया ?

ज़िन्दगी भर साथ निभाने का वादा करके
अब क्यूँ मुझसे वो, पल भर में रूठ गया ?

दुनियाँ भर की सैर कराके मेरा हमसफ़र
मंज़िल से पहले अपने ही शहर में छूट गया !

क़िस्मत क्या ऐसी भी होगी, मालूम न था
साहिल से पहले पतवार समंदर में छूट गया !

दिल तक पहुँचते-पहुँचते महबूब का प्यार
क्यूँ ज़ख्म बन कर जिगर में फ़ूट गया ?

आँखों के तीर ठीक निशाने पर लगाकर 'सलीम'
क्यूँ दिल पर निशाना, एक नज़र में चूक गया ?


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दीपावली की दिली मुबारक़बाद आप सभी ब्लॉगर्स और पाठक बन्धुवों को !
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10 टिप्पणियाँ:

चेहरे कैसे-कैसे इस दुनिया में, सदियाँ लग जायेंगी ये जानने में !



चेहरे कैसे-कैसे इस दुनिया में, सदियाँ लग जायेंगी ये जानने में
कौन अपना और कौन पराया, सदियाँ लग जायेंगी ये जानने में !

भीड़ बहुत है इस दुनियां में, अपनों की भी कमीं नहीं 
इन्सान इसमें से कौन है, सदियाँ लग जायेंगी ये जानने में !

वो हमें हर सू अपना कहता रहा और जफा भी करता रहा
वो मेरा महबूब है भी या नहीं, सदियाँ लग जायेंगी ये जानने में !

लेकिन फिक्र किस बात की और ग़म किसका अब 'सलीम'
वो मेरा रक़ीब ही है, सदियाँ लग जायेंगी ये जानने में !

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