'गर मोहब्बत ना हो तो ना आओ !!



 'गर तुम्हें मुझसे मोहब्बत हो तो सुनो...
मोहब्बत की आग ऐसी भी हो सकती है
कि समाजों की रस्में भी टूट सकती है
तुम इन रस्मों को निभाने के लिए ही आ जाओ !

इश्क़ में कभी ना कभी ऐसे दिन भी आ सकते हैं
कि चाहने वालों की तक़दीरें बदल सकती हैं 
तुम हमारी तक़दीर बदलने के लिए ही आ जाओ !

सन्नाटे में भी एक शोर सुनाई दे सकता है
कि मुझको सिर्फ़ तू ही दिखाई दे सकता है
तुम मेरे इस भरम को रखने के लिए ही आ जाओ !

लाख अँधेरे में भी उम्मीद की लौ जल सकती है
मायूसी की रात में भी चाँदनी नज़र आ सकती है
तुम इन मायूसी को मिटाने के लिए ही आ जाओ !

लेकिन अब तुम जो आना तो सिर्फ़ मेरे लिए ही आओ
मुझ को अपने आगोश में सिर्फ़ लेने के लिए ही आओ !

सिर्फ़ दुनिया को दिखाने के लिए ना आओ
सिर्फ़ मुझपर एहसान जताने लिए ना आओ !
'गर मुझसे मोहब्बत ना हो तो ना आओ
सिर्फ़ अपनी रस्म निभाने के लिए ना आओ !

'गर तुम्हें मोहब्बत ना हो तो ना आओ !!

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मोहब्बत की राह पर चलते-चलते, अब वो ऐसा क्यूँ कहती है कि मैं उसकी आरज़ू ना करूँ !












मोहब्बत की राह पर चलते-चलते 
अब वो ऐसा क्यूँ कहती है
कि मैं उसकी आरज़ू ना करूँ !

साथ जीने मरने की क़समें ख़ा कर
अब वो ऐसा क्यूँ कहती है
कि मैं उसकी जुस्तजू ना करूँ !

आह ! मैं ही समझ ना सका कि
उसके घर तो बारात आई थी
और धूम से बजी शहनाई थी
शायेद इसीलिए कहती है
कि मैं उसकी आरज़ू ना करूँ !

उसने निभाया समाजों का धरम
उसने रखा बाबुल का भरम
शायेद इसीलिए कहती है
कि मैं उसकी जुस्तजू ना करूँ !

कहती है कि उसके ख़्याल में ना खोऊं
और उसे याद करके अब ना रोऊं
उसे अब भी मेरे हालात की चिंता है
शायेद इसीलिए कहती है
कि मैं उससे अब गुफ्तगू ना करूँ !

लेकिन कैसे मैं उसके ख़्यालों में ना खोऊं
और कैसे उसे याद करके ना रोऊं
कैसे मैं उसकी आरज़ू ना करूँ
कैसे मैं उसकी जुस्तजू ना करूँ ?

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ज़िन्दगी की आरजू........!

बार आरज़ू ने ज़िन्दगी से पूछा कि मैं कब पूरी होउंगी?
ज़िन्दगी ने जवाब दिया- 'कभी नहीं'।

आरज़ू ने घबरा कर फ़िर पूछा- 'क्यूँ?'

तो ज़िन्दगी ने जवाब दिया 'अगर तू ही पूरी हो गई तो इंसान जीएगा कैसे?!'

ये सुन कर आरज़ू बहुत मायूस हो गई और अपने आँचल के अन्दर मुहं छुपाकर सुबक सुबक कर रोने लगी

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अब फ़िर आ गए हो तो अब ना जाना !














अब फ़िर आ गए हो तो अब ना जाना !

ज़िन्दगी खुशनुमा ना थी
आरज़ूयें ज़िंदा ना थीं
अब वक़्त ऐसा जो लाये हो कि
ज़िन्दगी खुशनुमा है
आरज़ूयें ज़िन्दा हो गयीं हैं !
इसलिए
अब फ़िर आ गए हो तो अब ना जाना !

वक़्त का एक लम्हा सदियों की तरह लगता था
तनहाई में भी लगता जैसे कोई मुझे तकता था
अब वक़्त ऐसा लाये हो कि
वक़्त रुकता ही नहीं पल भर टिक कर
सन्नाटें में भी तुम्हारे एहसास का साया रहता है !
इसलिए
अब फ़िर आ गए हो तो अब ना जाना !

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तमन्ना जीने की फ़िर से जाग उठी मेरे दिल में, यूँ मरने की हसरत फ़िर से जाग उठी मेरे दिल में !


तमन्ना जीने की फ़िर से जाग उठी मेरे दिल में
यूँ मरने की हसरत फ़िर से जाग उठी मेरे दिल में

उमंग उड़ने की फ़िर से जाग उठी मेरे दिल में
तरंग मचलने की फ़िर से जाग उठी मेरे दिल में 

धड़कन उसी तरह उछल उठी बल्लियों ऊपर
थी जैसे बरसों पहले वो मचल उठी मेरे दिल में

खुश हुआ मैं एक अच्छे मुस्तक़बिल की आस में
है फ़िर क्यूँ वो एक लहर-सी उठी मेरे दिल में?


प्यार पाने के लिए मैंने क्या-क्या न किया 'सलीम'
आरज़ूयें किश्तों में फ़िर से जाग उठी मेरे दिल में

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याद है मुझे आग के साथ खेलने के वो दिन आज भी अब तो हवा ही एक झोंके में मुझे रोज़ जला देती है


ख़्वाबों में आपकी आमद की ललक मुझे रोज़ सुला देती है
आँखों में आपकी यादों की कसक मुझे रोज़ रुला देती है

याद है मुझे आग के साथ खेलने के वो दिन आज भी
अब तो हवा ही एक झोंके में मुझे रोज़ जला देती है

मज़बूत इतना था जब पत्थर भी फ़ना थे मेरे आगे
अब तो ज़ख्म की एक सिहरन ही मुझे रोज़ हिला देती है

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गर वो चाहे तो खुल जाए ज़ुल्फों की सारी लटें, आईना ऐसा लगा जो अन्दर नहीं खुलने देता !


ख़्वाहिश है अपनी पस्ती से निजात पा जाऊं
कौन डर मुझमें है जो दर-ए-नसीब नहीं खुलने देता


हथेलियों में है लकीरें ऐसी जो जज़ीरों से हो भरी
कौन हाथों से जंज़ीर-ए-जजीरा नहीं खुलने देता


'गर वो चाहे तो खुल जाए ज़ुल्फों की सारी लटें  
आईना ऐसा लगा जो अन्दर नहीं खुलने देता 


उसकी शख्सियत है गुमनाम सी शहर भर में
अपना भेद वो किसी पर नहीं खुलने देता 


खुला पड़ा है आसमान मंज़िल-ए-सफ़र के लिए 
कौन है जो रास्ता बाहर नहीं खुलने देता 


ज़ेहन-ओ-जिस्म में आग का दरिया है भरा
पर एक चिंगारी वह दिल में नहीं जलने देता

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धुप है तेज़, कहीं ज़रा सी छाँव नहीं, बादलों को अब कहाँ से लाऊँ मैं !


किस जतन से आपके और क़रीब आऊं मैं 
केवल आपको ही अपना बनाऊं मैं !

पास हो कर भी हम दूर हैं इतने 
किस सदा से आपको बुलाऊं मैं !

शाम-सुबह बे-क़रार रहता हूँ 
कहाँ चन्द लम्हे का चैन पाऊँ मैं !

धुप है तेज़, कहीं ज़रा सी छाँव नहीं 
बादलों को अब कहाँ से लाऊँ मैं !

एक पल भी याद से आपकी ग़ाफिल नहीं
अब ख़ूब कहते हैं, भूल जाऊं मैं !!

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समझ लेता हूँ कि वो तुम हो !


तुम्हारी याद आने पर आँसू टूट जाते है
उन्हें मैं हथेलियों पर समेट लेता हूँ
और जो अटक जाते हैं होंटों पर
तो मैं समझ लेता हूँ कि वो तुम हो !

सुबह-सुबह ठंडी हवा का झोंका 
मुझे चुपके से आकर छूता है
और उसमें जो सबसे तेज़ झोंका हो 
तो मैं समझ लेता हूँ कि वो तुम हो !

बिछड़ने के बाद से ही तुम्हारी याद आती है 
तुम्हारी याद में जब मेरा दिल रोता है
रोते-रोते जो ज़ोर की हिचकी आती है

तो मैं समझ लेता हूँ कि वो तुम हो !

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धीरे-धीरे, वक़्त के साथ, जवानी बदकारी के अड्डों की सौग़ात बन जायेगी !!


धीरे-धीरे, वक़्त के साथ 
ये उम्र ख़त्म हो जायेगी !

धीरे-धीरे, वक़्त के साथ
ये ज़िन्दगी यादों की किताब बन जायेगी !

धीरे-धीरे, वक़्त के साथ
साँसे ज़िन्दगी पर उधार बन जायेंगी !

धीरे-धीरे, वक़्त के साथ
दौलत के भेड़ियों की दुनियाँ बन जायेगी !

धीरे-धीरे, वक़्त के साथ
ये बस्ती अपने ही लोगों के हाथों लुट जायेगी !

धीरे-धीरे, वक़्त के साथ
जवानी बदकारी के अड्डों की सौग़ात बन जायेगी !

... तो फ़िर ऐसी दुनियाँ में रहने का क्या फायेदा
लगा दो इसमें आग, भस्म कर दो इसे...
या फ़िर उठा लो मशाल एक तबदीली की, इस उम्मीद के साथ
शायेद दुनियाँ बदल ही जायेगी ......!! 

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जिसका हम दीदार करते थे, वो सितारा ही बिखर गया


आसमान देखने की भी हसरत बाक़ी नहीं रही दिल में
जिसका हम दीदार करते थे, वो सितारा ही बिखर गया

मेरी निगाहों में बसे अश्क़ों का आलम ना पूछो
आसमान ऐसे रोने लगा, रोते रोते ही बिखर गया

ना आया करो काग़ज़ की दुनियाँ में, कहीं जल ना जाये
आफ़ताब पर मेरी इस गुज़ारिश का अब असर गया !


अब उसकी नज़र मुझपे टिकती ही नहीं या फ़िर
मेरी ही नज़र से अब हो वह बद-नज़र गया

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साहिल पे आके खाया है मैंने धोका, अच्छा ही हुआ जो पतवार छुट गया !


लेना ही नहीं है अब नामे मोहब्बत
अच्छा ही हुआ जो भरम टूट गया

साहिल पे आके खाया है मैंने धोका
अच्छा ही हुआ जो पतवार छुट गया


निगाहों में रहती थी हर वक़्त तेरी सूरत
अच्छा ही हुआ जो उजाला रूठ गया


तुझे देखा जो ग़ैर की बाँहों-पनाहों में
अच्छा ही हुआ जो मुझसे तू छुट गया

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कुछ फूल भी ज़ख्म दे देते हैं यक़ीन मानों मेरा, दिल ज़ख़्मी हो सिर्फ़ खार से ज़रूरी तो नहीं.






कुछ फूल भी ज़ख्म दे देते हैं यक़ीन मानों मेरा 
दिल ज़ख़्मी हो सिर्फ़ ख़ार से ज़रूरी तो नहीं


चाही जो मैंने थोड़ी सी ख़ुशी ज़िन्दगी में 
ख़ुशी के बदले ख़ुशी ही मिले ज़रूरी तो नहीं

चाही जो मैंने थोड़ी सी मोहब्बत ज़िन्दगी में
मोहब्बत के बदले मोहब्बत मिले ज़रूरी तो नहीं

हो क़िस्मत पर सबका इखित्यार ज़रूरी तो नहीं
ग़म में रो सके जो आँखें ज़ार-ज़ार ज़रूरी तो नहीं

रोने से क्या फायेदा मिलेगा अब 'ऐ सलीम'
ज़ीस्त से हों जाएँ सब बेज़ार ज़रूरी तो नहीं.

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ज़िन्दगी क्या है ये जानने के लिए; मैंने बारहां मौत को गले लगाया क्यूँ हैं?


कभी वो अपना था अब पराया क्यूँ है?
सन्नाटा भीड़ में इतना समाया क्यूँ है?

साथ जियेंगे साथ मरेंगे की क़समें खाकर  
बाद मरने के फ़िर वो मेहंदी लगाया क्यूँ है?

क्या मिलूं मैं अब उनसे ऐ दिल तू ही बता
मोहब्बत करके चोट दिल पे लगाया क्यूँ है?

ज़िन्दगी क्या है ये जानने के लिए "सलीम"
मैंने बारहां मौत को गले लगाया क्यूँ हैं?

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सजाया था जिसके लिए फूलों का गुलशन मैंने; वो ही पत्थर लिए हर लम्हा तलाशता है मुझे !

चेहरा बदल-बदल कर तलाशता है मुझे
वक़्त का हर एक लम्हा तलाशता है मुझे

सजाया था जिसके लिए फूलों का गुलशन
वो ही पत्थर लिए हर लम्हा तलाशता है मुझे


समन्दर ने तो हर सू मुझे सुकून दिया
पानी का हर एक क़तरा तलाशता है मुझे


जिस्म में इस तरह समाया हूँ उसके 
ख़ून का हर एक क़तरा तलाशता है मुझे

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कोई दोस्त है या रक़ीब है, ये रिश्ता भी कितना अजीब है !



कोई दोस्त है या रक़ीब है
ये रिश्ता भी कितना अजीब है

क़ातिल ही निकला मुंसिब मेरा
ये इन्साफ़ भी कितना अजीब है

उसकी सूरत तक देखी ना गयी
ये कौन है जो इतना क़रीब है

उदासियों के साए में लिपटा हूँ
अब तो ये ही मेरा नसीब हैं

-सलीम ख़ान
# 9838659380 

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जब किसी से कोई गिला रखना, सामने अपने आईना रखना; Nida Fazli



जब किसी से कोई गिला रखना
सामने अपने आईना रखना

यूं उजालों से वास्ता रखना



शम्मा के पास ही हवा खना


घर की तामीर चाहे जैसी हो
इसमें रोने की कुछ जगह रखना

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