अपनी मुहब्बत की लाश पे खुद गा के आ गया
क़ातिल को हिफाज़त-ए-सामान दे के आ गया
रौशनी उसके घर पे जगमगाती रही रात भर
ज़िन्दगी के उजालों को अँधेरा बना के आ गया
ता-उम्र उससे मिलता रहा महफ़िल में यूँ ही
और इंतिहा में मैं तन्हाई ले के आ गया
गर्दे-सफ़र की दास्ताँ कुछ यूँ हुई 'सलीम'
अपने ही घर का रास्ता खुद खो के आ गया
0 टिप्पणियाँ:
एक टिप्पणी भेजें