ज़हर को भी हंस-हंस के पी रहा हूँ दोस्तों !

मैं खुदा का नाम ले कर जी रहा हूँ दोस्तों
ज़हर को भी हंस-हंस के पी रहा हूँ दोस्तों

खूब चाहने का अंजाम अब ये मिला मुझे
ज़िन्दगी रही नहीं फिर भी जी रहा हूँ दोस्तों

बेखुदी में उसकी अंजाम ये हासिल हुआ
ज़ख्म उसके दिए रोज़ सी रहा हूँ दोस्तों

कभी न कभी तो सुन लेगा वो मेरी आह को
अब बस इक इसी आस पे जी रहा हूँ दोस्तों

आँख में अब एक क़तरा भी न बचा 'सलीम'
कैसे कहूँ, बड़ी अज़ीयत से जी रहा हूँ दोस्तों 

1 टिप्पणियाँ:

DR. ANWER JAMAL ने कहा…

@ सलीम भाई ,
आरिफ़ बंदे दुख में भी अपने रब से राज़ी और मुतमईन रहकर लज़्ज़त ही पाते हैं। माँ के सुख का तो जनम ही जनम की पीड़ा से होता है । देखिए-

ज्ञानमधुशाला
कैसे कोई समझाएगा पीड़ा का सुख होता क्या
गर सुख होता पीड़ा में तो खुद वो रोता क्या

इजाज़त हो तेरी तो हम कर सकते हैं बयाँ
दुख की हक़ीक़त भी और दुख होता क्या

ख़ारिज में हवादिस हैं दाख़िल में अहसास फ़क़त
वर्ना दुख होता क्या है और सुख होता क्या

सोच के पैमाने बदल मय बदल मयख़ाना बदल
ज्ञानमधु पी के देख कि सच्चा सुख होता क्या

भुला दे जो ख़ुदी को हुक्म की ख़ातिर
क्या परवाह उसे दर्द की दुख होता क्या

आशिक़ झेलता है दुख वस्ल के शौक़ में
बाद वस्ल के याद किसे कि दुख होता क्या

पीड़ा सहकर बच्चे को जनम देती है माँ
माँ से पूछो पीड़ा का सुख होता क्या
"""""""""
ख़ारिज - बाहर, हवादिस - हादसे, दाख़िल में - अंदर
हुक्म - ईशवाणी, ख़ुदी - ख़ुद का वुजूद, वस्ल- मिलन

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