दुश्मन को भी अपना दोस्त बनाया है मैंने


दुश्मन को भी अपना दोस्त बनाया है मैंने
अपने हांथों आशियाँ खुद ढहाया है मैंने

नज़रों में अब धुआँ-धुआँ सा रहता है
जब से अपना घर खुद जलाया है मैंने

ग़ैरों की बिसात ही क्या थी मेरे आगे
अपने आप को ही खुद सताया है मैंने

दुनियाँ वालों से तवक्को रखता कैसे
मसीहा हूँ मैं, उनसे खुद बताया है मैंने

जफा जो मिली सबसे तो गिला कैसा
रक़ीब को भी खुद गले से लगया है मैंने

वक़्त को दोष क्या देना अब 'सलीम'
अपने हांथो इसे बुरा खुद बनाया है मैंने

1 टिप्पणियाँ:

vandana gupta ने कहा…

बहुत सुन्दर गज़ल्।

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